एज़ाज़ क़मर, एसोसिएट एडिटर-ICN
नई दिल्ली। राष्ट्रवाद एक आधुनिक संकल्पना है जिसका विकास पुनर्जागरण के बाद यूरोप मे राष्ट्र आधारित राज्यो के रूप मे हुआ,वास्तव मे आधुनिक राष्ट्रवाद का उदय अट्ठारहवी सदी के लगभग युरोप मे हुआ था,किन्तु केवल दो-ढाई सौ साल के छोटे से काल मे यह विचार इतिहास मे एक शक्तिशाली राजनीतिक विचारधारा के रूप मे स्थापित हो गया है,क्योकि मनुष्य अपने आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक हितो को लेकर बेहद तंगनज़र और स्वार्थी हो गया है अर्थात उसे जोड़ने (Inclusive) के बजाय तोड़ने (Exclusive) मे ही अपना हित दिखाई देता है।
इसके विपरीत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सैकड़ो सालो से मनुष्यो को जोड़ता रहा है,साधारण शब्दो मे समझा जाये तो राष्ट्रवाद मे राष्ट्र एक इकाई होता है,किंतु सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इस इकाई (राष्ट्र) की सीमाओ से बाहर निकलकर मनुष्यो को जोड़ता है।
भारत मे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दो विचारधाराये प्रचलित है,पहली विचारधारा के जनक लोकप्रिय दार्शनिक पंडित दीनदयाल उपाध्याय है जिसे “एकात्मता का दर्शन” (Integral Humanism) कहा जाता है और यह विचारधारा अद्वैतवादी अर्थात (Dualism) शंकराचार्य की परंपराओ पर आधारित और सीमित (Exclusive) है।
दूसरी विचारधारा के समर्थको का मत है कि संस्कृति मिटने के बजाय रूपांतरित हो जाती है जिसमे अस्वस्थ परंपराये कुरीतिया मान ली जाती है और स्वस्थ परंपराये सांस्कृतिक पहचान बनती है,फिर यह संस्कृति अपने मूल स्वरूप को बचाते हुये नई परंपराओ को स्वीकार करके एक समावेशी (Inclusive) संस्कृति को विकसित करती है।
विश्व गुरु भारत की महान संस्कृति के बारे मे महान दर्शन शास्त्री और कवि अल्लामा इकबाल ने लिखा था;
ऐ आब-रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझको,
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा,
मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,
हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा,
यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से,
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशां हमारा,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी,
सदियो रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़मां हमारा,
‘इक़बाल’ कोई महरम अपना नही जहाँ मे,
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहां हमारा।
मजरूह सुल्तानपुरी की निम्नलिखित पंक्तियां इस महान समावेशी संस्कृति पर सटीक बैठती है;
“रफ़्ता-रफ़्ता मुंक़लिब होती गई रस्म-ए-चमन
धीरे धीरे नग़्मा-ए-दिल भी फ़ुग़ां बनता गया,
मै अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल,
मगर लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया”।
इस समावेशी संस्कृति पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्र के भीष्म-पितामह थे,भारत के रत्न महानायक अमीर खुसरो,उनको राष्ट्रभाषा हिंदी का पहला कवि माना जाता है और उनकी रचनाओ पर रहस्यवाद अर्थात आध्यात्मिकता की अमिट छाप है,वह मध्य एशिया मे “तोता-ए-हिंद” (Indian Parrot) के नाम से भी प्रसिद्ध है।
खुसरो एक महान सूफ़ी संत, कवि (फारसी व हिन्दवी), लेखक, साहित्यकार, निष्ठावान राजनीतिज्ञ, बहुभाषी, भाषाविद्, इतिहासकार, संगीत शास्री, गीतकार, संगीतकार, गायक, नृतक, वादक, कोषकार, पुस्तकालयाध्यक्ष, दार्शनिक, विदूषक, वैध, खगोल शास्री, ज्योतषी, तथा सिद्ध हस्त शूर वीर योद्धा थे।
हालांकि उनकी 99 पुस्तको का उल्लेख मिलता है,लेकिन सभी उपलब्ध नही है, इसके अतिरिक्त उनकी फुटकर रचनाएं भी संकलित है, जिनमे पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बते और अनमेलियां है,ये सामग्री भी लिखित मे कम उपलब्ध थी,श्रुति अथवा वाचक रूप मे इधर-उधर फैली थी,जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने खुसरो की हिन्दी कविता नामक छोटी पुस्तक के रूप मे प्रकाशित किया था।
यद्यपि बहुमुखी प्रतिभा संपन्न खुसरो मे प्रतिभा नैसर्गिक थी,लेकिन उनकी कविता मे सर्वत: सौंदर्य और माधुर्य ख़वाजा निजामुद्दीन औलिया के वरदान की देन माना जाता है,उन्ही के प्रभाव से खुसरो के काव्य मे रहस्यवादी (सूफ़ी) शैली एवं भक्ति की गहराई तथा प्रेम की उदात्त व्यंजन उपलब्ध होती है।
खुसरो का परिवार चिश्तिया सूफी सिलसिले (सम्प्रदाय) के महान सूफी-संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया का मुरीद (भक्त) था और उनके समस्त परिवार ने उनसे तालीम (धर्म-दीक्षा) ली थी,जब खुसरो केवल सात वर्ष के थे तो उनके पिता अमीर सैफुद्दीन महमूद अपने पुत्रो को लेकर दीक्षा दिलाने के आशय से हज़रत निजामुद्दीन औलिया की सेवा मे उपस्थित हुये,तो हज़रत निजामुद्दीन की खानकाह (आश्रम) के द्वार पर पहुँचकर खुसरो ने अंदर जाने से मना करते हुये अपने पिता से कहा;कि “मुरीद ‘इरादा करने’ वाले को कहते है और मेरा इरादा अभी मुरीद होने का नही है,इसलिये अभी आपको मेरे बिना ही अंदर जाना होगा और मै यही बाहर दरवाजे़ पर बैठूंगा,अगर हज़रत निजामुद्दीन चिश्ती वाक़ई सच्चे सूफ़ी है,तो खुद बखुद मै उनका मुरीद बन जाऊंगा,इसलिये आप अकेले जाइएं”।जब खुसरो के पिता भीतर गये तो खुसरो ने बैठे-बैठे दो पद बनाए और अपने मन मे विचार किया कि “यदि संत आध्यात्मिक बोध सम्पन्न होगे तो वे मेरे मन की बात जान लेगे तथा अपने द्वारा निर्मित पदो के द्वारा मेरे पास उत्तर भेजेगे और तभी मै अंदर जाकर उनसे दीक्षा प्राप्त करूगा, अन्यथा नही”।
खुसरो ने निम्नलिखित पद की रचना करी :-
“तु आँ शाहे कि बर ऐवाने कसरत, कबूतर गर नशीनद बाज गरदद।
गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद, बयायद अंदर्रूँ या बाज़ गरदद।।”
(अर्थ :- तू ऐसा शासक है कि यदि तेरे प्रसाद की चोटी पर कबूतर भी बैठे, तो तेरी असीम अनुकंपा एवं कृपा से बाज़ बन जाये)।
खुसरो चिंतन मे मस्त थे,कि भीतर से संत का एक सेवक आया और खुसरो के सामने यह पद पढ़ा :-
“बयायद अंदर्रूँ मरदे हकीकत, कि बामा यकनफस हमराज गरदद। अगर अबलह बुअद आँ मरदे – नादाँ। अजाँ राहे कि आमद बाज गरदद।।”
(अर्थ :- “हे सत्य के अन्वेषक, तुम भीतर आओ, ताकि कुछ समय तक हमारे रहस्य-भागी बन सको, यदि आगुन्तक अज्ञानी है तो जिस रास्ते से आया है उसी रास्ते से लौट जाएं”)
खुसरो ने ज्यो ही यह पद सुना, वे आत्मविभोर तथा आनंदित हो उठे और फौरन अंदर जाकर हज़रत निजामुद्दीन औलिया को सलाम किया,फिर वह उनके मुरीद बन गये।
इस घटना के पश्चात अमीर खुसरो झूमते हुये अपने घर पहुंचकर अपनी माता जी के सामने सूफी नृत्य करते हुये गुनगुनाने लगे;
[“आज रंग है ऐ माँ रंग है री,
मेरे महबूब के घर रंग है री।
अरे अल्लाह तू है हर,
मेरे महबूब के घर रंग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया,
निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया।
अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया।
कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया, मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया।
आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया।
वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।
अरे ऐ री सखी री, वो तो जहाँ देखो मोरो (बर) संग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, आहे, आहे आहे वा।
मुँह माँगे बर संग है री, वो तो मुँह माँगे बर संग है री।
निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो, जग उजियारो जगत उजियारो।
वो तो मुँह माँगे बर संग है री।
मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया।
गंजे-शकर मोरे संग है री।
मैं तो ऐसो रंग और नही देखयो सखी री।
मैं तो ऐसी रंग।
देस-बदेस मे ढूढ़ फिरी हूँ,
देस-बदेस मे।
आहे, आहे आहे वा, ऐ गोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।
मुँह माँगे बर संग है री।
सजन मिलावरा इस आँगन मा।
सजन, सजन तन सजन मिलावरा।
इस आँगन मे उस आँगन मे।
अरे इस आँगन मे वो तो,
उस आँगन मे।
अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।
आज रंग है ए माँ रंग है री।
ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।
मैं तो तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।
मुँह माँगे बर संग है री।
मैं तो ऐसो रंग और नही देखी सखी री।
ऐ महबूबे इलाही मै तो ऐसो रंग और नही देखी।
देस विदेश मे ढूँढ़ फिरी हूँ।
आज रंग है ऐ माँ रंग है ही।
मेरे महबूब के घर रंग है री।”]
हिन्दवी मे लिखित प्रसिद्ध रचना जो इस अवसर का स्मरण स्वरुप है,उसको आज कव्वाली और शास्रीय व उप-शास्रीय संगीत मे “रंग” के नाम से गाया और पहचाना जाता है,इसे सूफी कार्यक्रमो विशेषकर “उर्स” के अवसर पर गाया जाता है।
विश्व को गुरु-शिष्य परंपरा देने वाली भारतीय संस्कृति मे उन्होने अपने गुरु का महिमा-मंडन करते हुये चार-चाँद लगा दिये;
[“तोरी सूरत के बलिहारी,
निजाम,
तोरी सूरत के बलिहारी।
सब सखियन मे चुनर मेरी मैली,
देख हसें नर-नारी,
निजाम…।
अबके बहार चुनर मोरी रंग दे,
पिया रखले लाज हमारी,
निजाम…।
सदका बाबा गंज शकर का,
रख ले लाज हमारी,
निजाम…।
कुतब, फरीद मिल आए बराती,
खुसरो राजदुलारी,
निजाम…।
कौउ सास कोउ नन्द से झगड़े,
हमको आस तिहारी,
निजाम…।
तोरी सूरत के बलिहारी,
निजाम…”।]
[“हजरत ख्वाजा संग खेलिये धमाल,
बाइस ख्वाजा मिल बन बन आयो,
ता में हजरत रसूल साहब जमाल। हजरत ख्वाजा संग…।
अरब यार तेरो (तोरी) बसंत मनायो,
सदा रखिए लाल गुलाल।
हजरत ख्वाजा संग खेलिये धमाल”।]
[“बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निज़ाम पिया।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
ज़रा बोलो निज़ाम पिया।
पनिया भरन को मैं जो गई थी।
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी।
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
खुसरो निज़ाम के बल-बल जाइए।
लाज राखे मेरे घूँघट पट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की”।]
[“मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल।
कैसे घर दीन्ही बकस मोरी माल।
निजामुद्दीन औलिया को कोई समझाए,
ज्यो-ज्यो मनाऊँ,
वो तो रुसो ही जाए।
चूडियाँ फूड़ो पलंग पे डारुँ,
इस चोली को मैं दूँगी आग लगाए।
सूनी सेज डरावन लागै।
बिरहा अगिन मोहे डस डस जाए।
मोरा जोबना…”।]
उनकी रचनाओ मे श्रृंगार-रस की प्रधानता होती थी,मजनू-लैला जैसी प्रसिद्ध प्रेमकहानी उसका एक उत्कृष्ट नमूना है;
[“अपनी छबि बनाई के जो मैं पी के पास गई,
जब छबि देखी पी की तो अपनी भूल गई।
छाप तिलक सब छीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के,
बात अघम कह दीन्हीं रे मोसे नैंना मिला के।
बलि बलि जाऊँ मैं तोरे रंग रजवा,
अपनी सी रंग दीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
प्रेम भटी का मदवा पिलाय के,
मतवारी कर दीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
गोरी गोरी बहियाँ हरी हरी चूरियाँ
बइयाँ पकर हर लीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
खुसरो निजाम के बलि-बलि जाइए
मोहे सुहागन किन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
ऐ री सखी मैं तोसे कहूँ, मैं तोसे कहूँ, छाप तिलक…”।]
[“ऐ री सखी मोरे पिया घर आए,
भाग लगे इस आँगन को।
बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को।
मैं तो खड़ी थी आस लगाए,
मेंहदी कजरा माँग सजाए।
देख सूरतिया अपने पिया की,
हार गई मैं तन मन को।
जिसका पिया संग बीते सावन,
उस दुल्हन की रैन सुहागन।
जिस सावन में पिया घर नाहिं,
आग लगे उस सावन को।
अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी मैं तो डूबी डूबी जाऊँ।
तुम ही जतन करो,
ऐ री सखी री,
मै मन भाऊँ साजन को”।]
निम्नलिखित पंक्तियां श्रंगार रस (वियोग) की लाजवाब उदाहरण है;
[“अब आए न मोरे साँवरिया,
मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
घर आए न मोरे साँवरिया,
मैं तो तन मन उन पर लुटा देती।
मोहे प्रीत की रीत न भाई सखी,
मैं तो बन के दुल्हन पछताई सखी।
होती न अगर दुनिया की शरम,
मैं तो भेज के पतियाँ बुला लेती।
उन्हे भेज के सखियाँ बुला लेती”।]
[“बहुत दिन बीते पिया को देखे,
अरे कोई जाओ, पिया को बुलाय लाओ
मै हारी वो जीते पिया को देखे बहुत दिन बीते।
सब चुनरिन मे चुनर मोरी मैली,
क्यो चुनरी नही रंगते?
बहुत दिन बीते।
खुसरो निजाम के बलि बलि जइए,
क्यो दरस नही देते?
बहुत दिन बीते”।]
लोक कविता मे अमीर खुसरो को महारत हासिल थी, विशेषकर बेटी की विदाई के समय गाएं जाने वाले गीत;
[“बहोत रही बाबुल घर दुल्हन,
चल तोरे पी ने बुलाई।
बहोत खेल खेली सखियन से,
अन्त करी लरिकाई।
बिदा करन को कुटुम्ब सब आए, सगरे लोग लुगाई।
चार कहार मिल डोलिया उठाई,
संग परोहत और भाई।
चले ही बनेगी होत कहाँ है,
नैनन नीर बहाई।
अन्त बिदा हो चलि है दुल्हिन,
काहू कि कछु न बने आई।
मौज-खुसी सब देखत रह गए,
मात पिता और भाई।
मोरी कौन संग लगन धराई,
धन-धन तेरि है खुदाई।
बिन मांगे मेरी मंगनी जो कीन्ही,
नेह की मिसरी खिलाई।
एक के नाम कर दीनी सजनी,
पर घर की जो ठहराई।
गुण नही एक औगुन बहोतेरे,
कैसे नोशा रिझाई।
खुसरो चले ससुरारी सजनी,
संग कोई नही आई”।]
निम्नलिखित गीत का कुछ अंश हिंदी फिल्म उमराव जान मे उपयोग किया गया है;
[“काहे को ब्याहे बिदेस,
अरे,
लखिय बाबुल मोरे,
काहे को ब्याहे बिदेस।
भैया को दियो बाबुल महले दो-महले
हमको दियो परदेस
अरे,
लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस।
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें
अरे,
लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस।
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे है जैहे
अरे,
लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस।
कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन मे छाए पछाड़
अरे,
लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस।
हम तो है बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहे
अरे,
लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस।
तारो भरी मैने गुड़िया जो छोडी़
छूटा सहेली का साथ
अरे,
लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस।
डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस
अरे,
लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस।
अरे,
लखिय बाबुल मोरे,
काहे को ब्याहे बिदेस,
अरे,
लखिय बाबुल मोरे”।]
हज़रत निजामुद्दीन औलिया को अपने भानजे (बहन के बेटे) सैयद नूह से अपार स्नेह था और वह अपने बाद नूह को ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे,किंतु युवा अवस्था मे ही अकस्मात नूह की मृत्यु हो गई,जिससे हज़रत निजामुद्दीन को गहरा सदमा लगा और वह उदास तथा गुमसुम रहने लगे, अपने गुरु की हालत देखकर अमीर खुसरो बहुत दुखी हुये और हर वक़्त इसी खोज मे लगे रहते कि किस तरह अपने गुरु को खुश किया जाऐ?
इसी बीच बसंत ऋतु आ गई और बसंत पंचमी के दिन खुसरो अपने मित्रो के साथ बाहर टहल रहे थे,तभी उन्होने कालका मंदिर की ओर जाते माता सरस्वती के भक्तो को देखा जो पीले वस्त्र पहने हुये और फूलो से सजे-संवरे थे,अमीर खुसरो ने भक्तो से अपने साथ चलने का आग्रह करते हुये कहा;कि “मै अपने देवता (गुरू) को प्रसन्न करने के लिये फूल चढ़ाना चाहता हूं, आप भी मेरे साथ चलो!”
फिर उसके बाद अमीर खुसरो ने पीले वस्त्र पहने और अपनी टोपी तिरछी करके उसमे सरसो तथा गेंदे के फूल लगाकर अपना श्रृंगार किया,उसके बाद अपने सर पर “गढ़वा” (सरसो और टेसू के पीले फूलो से बना गुलदस्ता) रखकर वह अपने साथियो, शिष्यो, कव्वालो और देवी के भक्तो के साथ अपने गुरु के पास पहुंचे,फिर वह गुरु के सामने जमकर मस्त होकर नाचे-गाये,उनके अचानक नये रूप मे नाचने-गाने और मनमोहक अदाओ को देखकर हज़रत निजामुद्दीन औलिया मुस्कुरा दिये,उसके बाद खुशी मे खुसरो भक्तो के साथ नाचते-गाते मंदिर फूल चढ़ाने गये।
तब से जीवन-भर अमीर खुसरो बसंत पंचमी का त्यौहार मनाते रहे,उसके बाद यह चिश्तिया सूफी परंपरा का महत्वपूर्ण पर्व बन गया,आज भी यह पाकिस्तान के लाहौर मे “जश्ने बहारा” के रूप मे मनाया जाता है और इसे पाकिस्तान का सबसे बड़ा सरकारी पर्व माना जाता है।
[“सकल बन फूल रही सरसो
सकल बन फूल रही सरसो,
सकल बन (सघन बन) फूल रही सरसो।
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार,
और गोरी करत शृंगार,
मलनियां गढवा ले आई करसो,
सकल बन फूल रही सरसो।
तरह तरह के फूल खिलाए,
ले गढवा हातन मे आए।
निजामुदीन के दरवाजे पर,
आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गये बरसो,
सकल बन फूल रही सरसो”]
खुसरो को वर्षा ऋतु भी बहुत पसंद थी, वह सावन के पर्व को बहुत खुशी-खुशी मनाते थे,सावन के अवसर पर गाये जाने वाली उनकी “सावनिया” आज भी ग्रामीणांचल मे बहुत लोकप्रिय है।
[“सावन आया,
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री,
कि सावन आया।
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री,
कि सावन आया।
अम्मा मेरे भाई को भेजो री,
कि सावन आया।
बेटी तेरा भाई तो बाला री,
कि सावन आया।
अम्मा मेरे मामू को भेजो री,
कि सावन आया।
बेटी तेरा मामू तो बांका री,
कि सावन आया”।]
[“आ घिर आई दई मारी घटा कारी।
बन बोलन लागे मोर,
दैया री बन बोलन लागे मोर।
रिम-झिम रिम-झिम बरसन लागी छाई री चहुँ ओर,
आज बन बोलन लागे मोर।
कोयल बोले डार-डार पर पपीहा मचाए शोर,
आज बन बोलन लागे मोर।
ऐसे समय साजन परदेस गए बिरहन छोर,
आज बन बोलन लागे मोर”।]
ऋतु पर्व के साथ-साथ अमीर खुसरो होली भी बहुत धूमधाम से मनाते थे, क्योकि सनातन संस्कृति उन्हे विरासत मे मिली थी, जब वे सात वर्ष के थे तो उनके पिताजी का देहांत हो गया था,फिर उनके नाना नेे उनका पालन-पोषण किया। उनके नाना इमादुत-उल-मुल्क जन्म से हिंदू राजपूत थे,जो बाद मे मुसलमान बन गये और बलबन ने उन्हे युद्ध मंत्री बनाया था,उनके परिवार मे नृत्य-गायन जैसी कलाओ का बोलबाला था और यही से अमीर खुसरो को सनातन परंपराओ की दीक्षा मिली,इसलिये उन्होने भारतीय परंपराओ का ऐसा सजीव वर्णन किया है,वैसा कोई ग़ैर-हिंदू नही कर सकता था।
अमीर खुसरो बहुत हंसमुख और जिंदा-दिल इंसान थे,इसलिये उनके साहित्य मे श्रृंगार-रस तथा वीर-रस के साथ-साथ हास्यरस की प्रचुरता भी मिलती है,दोहे के अतिरिक्त उनकी “पहेलियां
कह-मुकरियाँ,
बूझ पहेली (अंतर्लापिका)
बिन-बूझ पहेली (बहिर्लापिका),
दोहा-पहेली,
ढकोसले (अनमेलियां),
दुसुख़ने,
उलटबाँसियां” आदि आज भी बहुत प्रसिद्ध है।
अमीर खुसरो ने कई प्रकार की पहेलियां लिखी है,
[(१) बूझ पहेली अथवा “अंतर्लापिका” मे उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से पहेली मे ही दिया होता है अर्थात जो पहेली पहले से ही बूझी गई हो।
(क) गोल मटोल और छोटा-मोटा,
हर दम वह तो जमी पर लोटा।
खुसरो कहे नही है झूठा,
जो न बूझे अकिल का खोटा।।
उत्तर – लोटा।
उपरोक्त पहेली मे पहली पंक्ति का आखिरी शब्द ही पहेली का उत्तर है अर्थात उत्तर पहेली मे कही भी हो सकता है,इन बूझ पहेलियो को दो वर्गो मे बांटा जा सकते है,एक मे तो उत्तर एक ही शब्द मे रहता है और दूसरे मे कभी-कभी उत्तर के लिये दो शब्दो को मिलाना पड़ता है।
(ख) श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसे नारी।
दोनो हाथ से खुसरो खींचे और कहे तू आ री।।
उत्तर – आरी।
उपरोक्त पहेली की दूसरी पंक्ति के आखिरी शब्द ‘आ’ और ‘री’ को मिलाने से उत्तर मिलता है।]
[(२) बिन बूझ पहेली अथवा “बहिर्लापिका” का उत्तर पहेली से बाहर होता है।
(क) एक नार कुँए मे रहे,
वाका नीर खेत मे बहे।
जो कोई वाके नीर को चाखे,
फिर जीवन की आस न राखे।।
उत्तर – तलवार
(ख) एक जानवर रंग रंगीला,
बिना मारे वह रोवे।
उस के सिर पर तीन तिलाके,
बिन बताए सोवे।।
उत्तर – मोर।]
[(३) दोहा पहेली मे आध्यात्मिक दोहे भी छुपे होते है।
(क) उज्जवल बरन अधीन तन,
एक चित्त दो ध्यान।
देखत मैं तो साधु है,
पर निपट पार की खान।।
उत्तर – बगुला (पक्षी)
(ख) एक नारी के है दो बालक,
दोनो एकहि रंग।
एक फिर एक ठाढ़ा रहे,
फिर भी दोनो संग।
उत्तर – चक्की।]
अमीर खुसरो ने आम लोगो के मनोरंजन, शब्द ज्ञान और सामान्य ज्ञान हेतु हिन्दी साहित्य मे कुछ नई विधाओ का अविष्कार किया,जो पूर्णत: शुद्ध पहेलियाँ तो नही है परन्तु इनमे भी कुछ पहेलियो की भाँति बुझौवल की प्रकृति विद्यमान है,ये नवीन विधाये उनके पूर्व अनयत्र कही नही मिलती,
[(१) निस्बते :-
यह अरबी भाषा का शब्द है,
जिसका अर्थ है संबंध या तुलना।
यह भी एक प्रकार की पहेली या बुझौवल कही जा सकती है,इसमे दो चीजो मे संबंध, तुलना या समानता ढूंढ़नी या खोजनी होती है,इन निस्बतो का मूल-भाव है एक शब्द के कई अर्थ अर्थात “बहु-अर्थीय शब्द” (Double Meaning Word)।
(क) आदमी और गेहूँ मे क्या निस्बत है? अर्थात दोनो मे क्या चीज एक समान है।
उत्तर – बाल।
आदमी के सर पर केश को बाल कहते है और खेत मे उगे गेहूँ के भी बाल (बालिया) होते है।
(ख) मकान और पायजामे मे क्या निस्बत है?
उत्तर – मोरी।
मकान मे नाली को मोरी कहते है और पायजामे के मोहरी (पहचे) को भी मोरी कहते है।
(ग) बादशाह और मुर्ग मे क्या निस्बत है?
उत्तर – ताज।
बादशाह के मुकुट को ताज कहते है और मुर्गे के सर के ऊपर लगी लाल कलगी को भी ताज कहते है।]
[(२) दो-सखुन :-
सखुन फारसी भाषा का शब्द है,
इसका अर्थ कथन या उक्ति है।
दो-सखुन मे दो कथनो या उक्तियो का एक ही उत्तर होता है,इसका मूल-भाव भी शब्द के दो-दो अर्थ होना है।
(क) दीवार क्यो टूटी?
राह क्यो लुटी?
उत्तर – राज न था।
दीवार बनाने वाला राजमिस्री या राजगीर नही था, इसलिये दीवार टूटी रह गई।
राज्य (राज) व्यवस्था नही थी,इसलिये राह लुट गई।
(ख) जोगी क्यो भागा?
ढोलकी क्यो न बजी?
उत्तर – मढ़ी न थी।
रहने के लिये झोपड़ी (मढ़ी) या कुटी न थी और ढोलकी चमड़े से मढ़ी हुई नही थी।
(ग) रोटी जली क्यो?
घोड़ा अड़ा क्यो?
पान सड़ा क्यो?
उत्तर – फेरा न था।
रोटी को फेरा (पलटा) नही गया था, इसलिये वह जल गई।
घोड़े की जन्मजात अड़ने की आदत होती है,अगर उसका मुंह ना फेरो तो वही खड़ा रहता है अर्थात अड़ जाता है।
पानी मे पड़े पान के पत्तो को पनवाड़ी बार-बार फेरता रहता है,इसलिये पान का पत्ता सड़ता नही,अगर पान ना फेरो तो सड़ जाता है।]
[(३) कहमुकरियाँ या मुकरियाँ (पहेली नुमा गीत) :-
अमीर खुसरो हिन्दी के पहेली-नुमा गीत लिखने वाले पहले कवि है,इन मुकरियो को विभिन्न रागो मे बाँधकर आज भी आमजन से लेकर विभिन्न संगीत घराने के लोग गाते है,जैसे रामपुर घाराना, सहसवान, आगरा, किराना, पटियाला, ग्वालियर, सैनिया आदि।
कहमुकरियो का अर्थ है,कि किसी उक्ति को कह भी दिया और मानने से भी मुकर गये,यह चार पंक्तियो मे होती है,पहली तीन या उससे अधिक मे पहेली होती है,फिर चौथी या आखिरी पंक्ति मे खुसरो “ए सखी साजन” के रुप मे पहेली का उत्तर देते है।
(क) बरसा-बरस वह देस मे आवे,
मुँह से मुँह लाग रस प्यावे।
वा खातिर मैं खरचे दाम,
ऐ सखी साजन न सखी आम।।
(ख) सगरी रैन मोरे संग जागा,
भोर भई तब बिछुड़न लागा।
वाके बिछुड़त फाटे हिया,
ऐ सखी साजन न सखी दिया।।
(ग) नित मेरे घर आवत है,
रात गए फिर जावत है।
मानस फसत काऊ के फंदा,
ऐ सखी साजन न सखी चंदा।।
(घ) आठ प्रहर मेरे संग रहे,
मीठी प्यारी बाते करे।
श्याम बरन और राती नैना,
ऐ सखी साजन न सखी मैना।।
(ञ) वो आवे तब शादी होवे,
उस बिन दूजा और न कोय।
मीठे लागे वाके बोल,
ऐ सखी साजन न सखी ढोल।।
(च) सगरी रैन गले मे डाला,
रंग रुप सब देखा भाला।
भोर भई तब दिया उतार,
ऐ सखी साजन न सखी हार।।
कुछ मुकरियाँ छ: पंक्तियो की भी है।
(छ) घर आवे मुख घेरे-फेरे,
दे दुहाई मन को हरे,
कभू करत है मीठे बैन,
कभी करत है रुखे नैन।
ऐसा जग मे कोऊ होता,
ऐ सखी साजन न सखी तोता।।
आधुनिक हिन्दी के जनक भारतेन्दु हरीशचन्द्र तो अमीर खुसरो से इतना प्रभावित थे,कि उन्होने खुसरो की ही शैली मे उन्ही का अनुकरण करते हुये,नये दौर की मुकरियां रच डाली थी।]
अमीर खुसरो की उलटबाँसियां आज भी उतनी ही मनोरंजक है,जितनी सात शताब्दी पहले हुआ करती थी।
[(क) भार भुजावन हम गए,
पल्ले बांधी ऊन।
कुत्ता चरखा लै गयो,
काएते फटकूंगी चून।।
(ख) काकी फूफा घर मे है कि नाय,
नाय तो नन्देऊ,
पांवरो होय तो ला दे,
ला कथूरा मे डोराई डारि लाऊँ।।
(ग) खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।
आयो कुत्तो खा गयो,
तू बैठी ढोल बजाय,
ला पानी पिलाय।
(घ) भैंस चढ़ी बबूल पर और लपलप गूलर खाय।
दुम उठा के देखा तो पूरनमासी के तीन दिन।।
(ञ) पीपल पकी पपेलियां,
झड़ झड़ पड़े है बेर।
सर मे लगा खटाक से,
वाह रे तेरी मिठास।।
(च) लखु आवे लखु जावे,
बड़ो कर धम्मकला।
पीपर तन की न मानूं बरतन धधरया,
बड़ो कर धम्मकला।।
(छ) भैंस चढ़ी बबूल पर और लप लप गूलर खाए।
उतर उतर परमेश्वरी तेरा मठा सिरानो जाए।।
भैंस चढ़ी बिटोरी और लप लप गूलर खाए।
उतर आ मेरे साँड की,
कही हिफ्ज न फट जाए।।]
अमीर खुसरो की मित्रता हसन सिज्जी देहलवी से हुई,हसन भी फारसी मे कवीता करते थे,लेकिन उनकी नानबाई (रोटी) की दुकान थी और वह ग़रीब थे, किंतु नैसर्गिक गुण देखकर खुसरो ने उनसे मित्रता करी और उनकी दोस्ती कृष्ण-सुदामा की जोड़ी की तरह प्रसिद्व हुई।
अमीर खुसरो एक कुशल योद्धा थे और उन्होने सात सुल्तानो के शासन के दौरान राजदरबार मे बड़े-बड़े पदो पर कार्य किया,किंतु वह बहुत ही नरम दिल और मोहब्बत करने वाले इंसान थे,एक बार मंगोलो से युद्ध मे हारने के बाद उन्हेे गिरफ्तार करके और घोड़े से घसीटकर अफगानिस्तान (हेरात और ब्लख़) ले जाया गया,किंतु अपनी योग्यता और कुशलता के बलबूते पर मंगोलो के चंगुल से छूटकर दिल्ली वापस आ गये।
जब राज दरबार मे कोकिला जैसी मधुर कंठ वाली गायिका गायन करती और अप्सरा जैसे रूप-रंग वाली नृत्यांगना नृत्य करती,तब बादशाहो के जाम महंगी शराब से भर दिये जाते थे,फिर उसके बाद स्वर्ग जैसी कल्पना को साकार करने वाली उस महफिल मे अमीर खुसरो एक गज़ल प्रस्तुत करते थे,लेकिन इसके बावजूद भी खुसरो अपनी सूफी जीवन-शैली से कोई समझौता नही करते थे।
वह महफ़िल मे अपना गज़ल पाठ करने के बाद अपने स्थान पर बैठकर गुरु-मंत्र का जाप करते रहते और उनकी आत्मा हमेशा अपने गुरु की खानकाह (आश्रम) मे बसी रहती थी,वह सादा भोजन करते और कभी शराब नही पीते थे,वह नियमित रूप से नमाज़ पढ़ते और रोज़ा भी रखते थे।
खुसरो ने अवध के गवर्नर खान अमीर अली के यहाँ दो वर्ष तक रहकर “अस्पनामा” नामक पुस्तक लिखी,पुस्तक का यह अंश काव्य सौंदर्य और देशप्रेम का अद्वितीय उदाहरण है,[“वाह क्या शादाब सरज़मीं है ये अवध की, दुनिया जहान के फल-फूल मौजूद, कैसे अच्छे मीठी बोली के लोग, मीठी व रंगीन तबियत के इंसान, धरती खुशहाल, ज़मींदार मालामाल”।
“अम्मा का खत आया था, याद किया है, दो महीने हुये, पाँचवा खत आ गया, अवध से जुदा होने को जी तो नही चाहता”।
“मगर देहली मेरा वतन, मेरा शहर, दुनिया का अलबेला शहर और फिर सबसे बढ़कर माँ का साया, जन्नत की छाँव”।
“उफ्फो-ओ!
दो साल निकल गये अवध मे, भई बहुत हुआ, अब मै चला, हातिमा खाँ दिलो-जान से तुम्हारा शुक्रिया मगर मै चला, ज़रो माल पाया, लुटाया, खिलाया, मगर मै चला, वतन बुलाता धरती पुकारती है”।]
अमीर खुसरो का जन्म १२५३ ईसवीं मे दिल्ली के निकट कासगंज के पटियाली गांव मे हुआ था,उन्होने अपने कार्यकाल के दौरान बंगाल से लेकर सिंध तक निवास किया। वह हमेशा भारत को जोड़ने अथवा “भारतीय संस्कृति को एक लड़ी मे पिरोने” का कार्य करते रहे,वह अपनी मातृभूमि का ऐसा महिमामंडन करते थे,जैसे “भारत-भूमि का एक-एक कण कोहिनूर का हीरा हो”।
अमीर ख़ुसरो द्वारा “आवाज़ बाजा” (बीच मे पतला तालवाद्य) को काट कर “तबले” का रूप देने की बात कही जाती है,सितार उनका अविष्कार है और आधुनिक कव्वाली को भी उन्ही की देन माना जाता है,उन्होने भारतीय तथा ईरानी रागो का सुन्दर मिश्रण किया और नवीन राग शैली “इमान, जिल्फ़, साजगरी” आदि को जन्म दिया।
अमीर खुसरो ने साहित्य और कलाओ के माध्यम से सनातन-इस्लामिक संस्कृति, भारत-ईरान संस्कृति और अरब-तुर्की संस्कृति को जोड़ा, विशेषकर भारत को संस्कृतिक आधार पर जोड़ने की उनकी इच्छा शक्ति उन्हे महान सांस्कृतिक राष्ट्रवादी (Cultural Nationalist) बनाती है,अपनी संस्कृति को एक लड़ी मे पिरोकर और उसे आने वाली पीढ़ियो के लिये सहेज कर रखने से ज़्यादा एक सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी का और क्या योगदान हो सकता है?
राष्ट्रवाद (Nationalism) और फासीवाद (Fascism) मे सूक्ष्म अंतर होता है,क्योकि जब राष्ट्रवाद संकीर्ण और हिंसक हो जाता है तो फासीवाद कहलाता है,जबकि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हमेशा उदार और अहिंसक होता है।
भारत मे उग्र होते राष्ट्रवाद का संज्ञान लेते हुये राष्ट्रीय स्वयंसेवक के दूसरे बड़े मनीषी भैया जी जोशी जी ने कहा है;कि “राष्ट्रवाद शब्द के उपयोग से बचे क्योकि पश्चिमी समाज मे इसे अच्छी नज़र से नही देखा जाता है”।
अमीर खुसरो प्रेम और कलाओ के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप के लोगो को अापस मे जोड़ते रहे और उनकी धार्मिक सहनशीलता तथा सांस्कृतिक एकता की स्थापना का प्रयास अतुलनीय है, इसलिये उनके जैसा आदर्शवादी व्यक्तित्व आज घृणा-हिंसा के फासीवादी युग मे हमारी आशा की किरण है,निसंदेह वह भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (Cultural Nationalism) के भीष्म-पितामह है और हमेशा रहेगे।